गुरुपर्व
गुरू ही संसार की समस्त पिडांओं, चिंताओं से मुक्ता होने के एकमात्र चावी है, जिसे सदगुरु प्रात्प हो गये, उस जैसा संसार मे कोई भाग्यवान नही है। सदगुरु के सामने वेदविज्ञान मौन हो गये, शास्त्र दीवाने हो गये वाक भी वन्द हो गई। सदगुरु की जिस पर कृपादृष्टि पडी, उसकी दृष्टी से सारा जगत हरिमय हो गया। जिसने गुरू की सेवा मे परम आनंद का भोग लिया, वाही उसकी माधुरी जान सकता है।
गुरू ईश्वर नियुक्त करत है। गुरू और शिष्य का संबंध जन्मा-जन्मान्तरों से चला आ राहा है। गुरू बोलते चलते साकार ब्रह्म है। सदगुरु शिष्य के नेत्रों से ज्ञानांजन लगाकर उसे दिव्य दृष्टी देते है। ऐसे गुरू की समर्पण भव से शरण लेनी चाहिये। उन्हें प्रत्यक्ष-परमेश्वर स्वरुप अंगीकार करना चाहिये। वे ही सन्मार्ग दिखाते है, शंकाओं का समाधान करते है।
गुरू ही ब्रह्म है, गुरू ही विष्णु है, गुरू ही महेश है, गुरू हे सक्क्षात् परब्रह्म स्वरुप है, अंतः सदा - सर्वदा गुरू को ही सदर नमन करना चाहिये।
गुरू अन्तर्यामी है। वह कोई देह्बध्द मनुष्य न होकर एक त्रिकालदर्शी शाश्वत तत्त्व है। गुरू शिष्य के सखा बनकर उसके अज्ञान को ज्ञान, अंन्धकार को प्रकाश में, समस्या को समाधान में बदल देते है। शिष्य को अपने कल्याण के लिये अपने अहंभाव को छोड़कर सदगुरु की सेवा करनी चाहिये।
गुरुपोर्णिमा के पावन दिन शिष्य अपने चंरणों मे आता है, उनकी कृपों के लिये धन्यवाद करता है। गुरू के सामने अपने पुरे वर्ष का लेखा-देखा प्रस्तुत करता है, गुरू के उपदेश का कितना पालन किया, कही कमी रह गई, गुरू के आदेशों का कितना खरा उतरा? गुरू से अपनी गलतियों किं क्षमा मांगता है, पुनः संकल्प करता है कि अपने दोषों को दूर करुंगा, फिर आश्वासन देता है में शिष्यत्व किं कसोटी पर खरा उतारूंगा क्योंकि आप शाश्वत सत्य हैं, आप युगद्रुष्टा है, आप सुखदायी है, कल्याण कारक है, आप सन्मार्ग दिखने वाले है।
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1 week ago
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