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Sunday, September 30, 2007

गुरू ही सब कुच्छ हैं


ॐ गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु: गुरूर्देवो महेश्वरा: !

गुरू: साक्षात परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:

गुरूवर के चरणों में कोटी -कोटी प्रणाम

गुरू ज्ञान की अमृत वाणी

गुरू ज्ञान की अमृत वाणी



संसार मे जितना भी ज्ञान -विज्ञानं है वह गुरुमुख से प्राप्त होने पर ही फलता है। ज्ञान ही गुरू है और गुरू ही ज्ञान है। ब्रह्मज्ञानी गुरुओं के मुखारविंद से ज्ञान के अजस्त्र धारा पूर्वकाल से ही प्रविहित होती आ रही है। क्योंकि ज्ञान का आदि स्त्रोत हो स्वयं परमब्रह्म परमेश्वर है। प्रभु की अनंत कृपाओं से ओत-प्रेत होकर गुरू रूप मे ज्ञान रश्मियां निरंतर प्रस्फुटित होती है और तब अज्ञानता के नमस् का तिरोभाव सम्भव होता है।

अग्यांरुपी अँधेरे का वजूद तब तक ही है जबतक सद्ज्ञान का सवेरा न हो। जैसे हरी-हरी घास पर अथवा वृक्ष के पत्तों पर पडी ओस की बूंदें सुर्य की किरणों आते ही वाष्पिभुत हो जति हैं, विलीन हो जीती हैं। पुनः कोगाने पर भी उन्हें नहीं पाया जा सकता। ऐसे ही जब गुर के ज्ञानरुपी सुर्य की किरणें शिस्य्या के अंतःकरण पर पड़ती हैं तो विकार, वसन, और अज्ञान का अँधेरा स्वयं भाग जता है। उसे मिटाने के लिए संघर्ष की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि अज्ञानरुपी अन्धकार और सद्ग्यान्रुपी प्रक्साह इनका सहस्तिव्त्व असम्भाव है।

अतः आइए! गुर ज्ञान की अम्रुत्वनी से हम भी अपने जीवन के पथ को आलोकित करने का सफल प्रयास कर्ण और मस्तिषक को गुरुचरण मे नवाकर सद्ज्ञान रूपी आशीष प्राप्त करे।

जीवन संचेतना जुलाई २००७।

Monday, September 24, 2007

पुस्तके : भगवदगीता भाग ३


पुस्तके : आलोक पथ

पुस्ताके : आलोक पथ


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ज्ञान का दीपक जल गया तो कष्ट-क्लेश अपने आप दूर हो जायेगा, अँधेरा भाग जायेगा। अँधेरे सं लढाई मत मोल लो, केवल दीपक जलाओ।
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जो झानी है वह अन्दर-बहार से सरल होगा। दोनों ओर से सरलता टपकेगी, कही भी कपट नही, कुटिलता नही। सीधी-सीधी भाषा और बच्चो जैसा निश्छल मन।
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प्रकृति मे तीन गुण है - सत, रज और तम। जिस गुण की मात्रा शरीर और मन-मस्तिष्क में बढती है उसी के अनुसार व्यक्ति का व्यवहार दिखाई देने लगता है।
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आपके स्वभाव में कुछ इस तरह कि ताजगी होनी चाहिये जैसे किसी पहाड़ी स्थान पर सुबह-सुबह खिले हुये फूलों पर पडी हुई ओस।
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आपकी वाणी सत्य से प्रतिष्टित हो, प्रिय हो और हितकर हो। अपनी वाणी को ज्ञान के मधुर शब्दो से सजाओ।
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मृत्यु इस जन्म कि आख़िरी नींद है। जन्म अगले जीवन का पहला जागरण है। पड़ाव पर थक कर सो जाना-बस, इसी का नाम मौत है। जागा तो नयी ताजगी से भर कर आगे चल दिया।
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- परम पूज्य सुधांशुजी महाराज

Saturday, September 15, 2007

दैनिक प्रार्थना


दैनिक प्रार्थना

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेंण्यं भर्गो देवस्य


धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात।

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ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुविर्ष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।


गुर साक्षात परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥


ॐ नमः शिवाय ! ॐ नामः शिवाय !! ॐ नमः शिवाय !!!


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है प्राथना गुरुदेव से यह् स्वर्गसम संसार हो,

अति उच्चतम जीवन बने परमार्थमय व्यवहार हो।
ना हम रहें अपने लिए हमको सभी से गर्ज है।

गुरुदेव यह आशीष दें जो सोचने का फर्ज है ।

हम होन पुजारी तत्त्व के गुरुदेव के आदेश के,

सच प्रेम के नित नेम के सदधर्म के सत्कर्म के।

हो चिढ़ झुठी राह की अन्याय की अभिमान की,

सेवा करन को दास की परवाह नहीं हो जान की।

छोटे ना हो हम बुद्धि से, होन विश्वमय से इशमय,

हो राममय और कृष्णमय जग देवमय जगादीशमय।

हर इन्द्रियों पर तबा कर हम वीर हो अति धीर हों,

उज्वल रहे सर से सदा, निज धर्मरत संबीर हों।

अतिशुद्ध हों आचार से तन-मन हमारा सर्वदा,

अध्यात्म की शक्ति हमें पल भी नहीं कर दे जुदा।

इस अमर आत्मा का हमें, हर श्वास भर में गम रहें,

ग़र मौत भी आ गयी सुख-दुःख में हम सम रहे।

हे गुरुदेव! हम सबको सदबुद्धि दें। सत्कर्म करने की प्रवृत्ति दें।

सच बोलने का अभ्यास दें। सत्स्वरूप का ज्ञान दें।


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ॐ नमः शिवाय ! ॐ नामः शिवाय !! ॐ नमः शिवाय !!!






Saturday, September 8, 2007

गुरुपर्व

गुरुपर्व

गुरू ही संसार की समस्त पिडांओं, चिंताओं से मुक्ता होने के एकमात्र चावी है, जिसे सदगुरु प्रात्प हो गये, उस जैसा संसार मे कोई भाग्यवान नही है। सदगुरु के सामने वेदविज्ञान मौन हो गये, शास्त्र दीवाने हो गये वाक भी वन्द हो गई। सदगुरु की जिस पर कृपादृष्टि पडी, उसकी दृष्टी से सारा जगत हरिमय हो गया। जिसने गुरू की सेवा मे परम आनंद का भोग लिया, वाही उसकी माधुरी जान सकता है।

गुरू ईश्वर नियुक्त करत है। गुरू और शिष्य का संबंध जन्मा-जन्मान्तरों से चला आ राहा है। गुरू बोलते चलते साकार ब्रह्म है। सदगुरु शिष्य के नेत्रों से ज्ञानांजन लगाकर उसे दिव्य दृष्टी देते है। ऐसे गुरू की समर्पण भव से शरण लेनी चाहिये। उन्हें प्रत्यक्ष-परमेश्वर स्वरुप अंगीकार करना चाहिये। वे ही सन्मार्ग दिखाते है, शंकाओं का समाधान करते है।

गुरू ही ब्रह्म है, गुरू ही विष्णु है, गुरू ही महेश है, गुरू हे सक्क्षात् परब्रह्म स्वरुप है, अंतः सदा - सर्वदा गुरू को ही सदर नमन करना चाहिये।

गुरू अन्तर्यामी है। वह कोई देह्बध्द मनुष्य न होकर एक त्रिकालदर्शी शाश्वत तत्त्व है। गुरू शिष्य के सखा बनकर उसके अज्ञान को ज्ञान, अंन्धकार को प्रकाश में, समस्या को समाधान में बदल देते है। शिष्य को अपने कल्याण के लिये अपने अहंभाव को छोड़कर सदगुरु की सेवा करनी चाहिये।

गुरुपोर्णिमा के पावन दिन शिष्य अपने चंरणों मे आता है, उनकी कृपों के लिये धन्यवाद करता है। गुरू के सामने अपने पुरे वर्ष का लेखा-देखा प्रस्तुत करता है, गुरू के उपदेश का कितना पालन किया, कही कमी रह गई, गुरू के आदेशों का कितना खरा उतरा? गुरू से अपनी गलतियों किं क्षमा मांगता है, पुनः संकल्प करता है कि अपने दोषों को दूर करुंगा, फिर आश्वासन देता है में शिष्यत्व किं कसोटी पर खरा उतारूंगा क्योंकि आप शाश्वत सत्य हैं, आप युगद्रुष्टा है, आप सुखदायी है, कल्याण कारक है, आप सन्मार्ग दिखने वाले है।


Wednesday, September 5, 2007

साधना क्षेत्र समाज है



संतो एवं श्रेष्टजनों के लिये साधना क्षेत्र समाज है। वे संसार में तो रहते है किन्तु उनका जीवन स्वहित के लिये न हो परहित के लिये होता है। साधना की सिद्धी तत्त्व - दर्शन है, यह साधानारुपी वृक्ष का पका हुआ फल है। तत्त्व दर्शन है तत्त्व को स्वयं प्रत्यक्ष करना। ऐसी स्थिति अनेक जन्मों की साधना, निष्टायुक्त भक्ती एवम कर्म के द्वारा प्राप्त होती है। तत्त्व दर्शन से व्यक्ति का व्यक्तित्व अलौकिक हो जता है। साधना से प्राप्त अलौकिक व्यक्तित्व से जन्म होता है एक ऐसे परम संत का, जिनके सता वार्तालाप, संग और दर्शन से व्यक्ति मे दैवी सम्पति का स्वतः प्रवेश होता है और मनुष्य अध्यात्मिक परिवेश मे ढल जाता है। उनके साथ बातचीत कराने में। समीप बैठने में आनंद मीलता है और उनसे बिछड़ने पर ऐसा लगता है, जैसे खो गया है बहुत कुछ। उनसे मिलाने के लिए, दर्शन के लिए बार-बार मन लालायित होता है।

लोक्विख्यात संत परम पूज्य सुधांशु जी महाराज के अलौकिक व्यक्तित्व से सैकड़ों, हजारों, व्यक्ति प्रभावित हुए है, उनमे अध्यात्मिक क्षेत्र में सम्मानित संतावृन्द, प्रतिष्टित राजनेता, धर्मगुरू, समाजसेवी, व्यवसायिक अर्थात अपने-अपने मनीषी क्षेत्रों के विशेषज्ञ सम्मिलित है। चिन्तन हो देश का, समाज का, धर्मं का, राजनीती का, ज्ञान का या हो विज्ञान का; पूज्य सुधांशु जी महाराज का पारदर्शी ज्ञान सबको मोह लेता है।

गहन से गहनतर विषयों पर गम्भीर चिन्तन, मनन और समाधान, राष्ट्र को नई दिशा देना, भ्रम से जकडे लोगों को श्रेष्ठ धर्ममार्ग पर प्रेरित करना, उच्च पदों पर आसीन प्रतिष्ठित जनों को कर्तव्यबोध की दिशा प्रदान करना, संतों के ज्ञान विज्ञान की निरातार चर्चा - यह श्रद्धेय सुधांशु जीं महाराज के सार्वजानिक जीवन का अभिन्न अंग है। जीतनी श्रध्दा होती उतनी ही भाव मे उत्क्रुष्ठाता होगी, मन का दर्पन उतना ही स्वच्छ होगा। बस ह्रदय को निर्मल कर लेने की जरुरत है।




पुस्तके : श्रीमदभागवदगीता भाग २


Monday, September 3, 2007

पुस्तके आलोक पथ


पुस्तके श्रीमद भगवदगीता भाग ३


पुस्तके : जीवन की राहे

पुस्तके : जीवन की राहें

उषाजी कोई लेखिका नही हैं। वह कहती है - मैं तो पुजारीन हूँ । अपने इष्टदेव की। तेरा जलवा है जहाँ, मेरा सजदा वहां होगा। मेरे जैसे तो लाखों है, तेरे जैसा कहॉ होगा? यहा सब कुछ मेरे बस का नहीं है । मन हमेशा लालायित रहता है सदगुरु सुधांशु जी महाराज के दर्शनों के लिए, न हो तो ऐसे लगता है जैसे कुछ पाना था, मुजे कुछ मिलना था, दर्शन नही हुए, तो वह मिला भी नहीं जो मुझे मिलना था। मिलता था उन्हें सकुन, शांति, संतोष, आनंद, बस उसी की तलाश में तो है हर इंसान। ढूंढ़ रहा है कभी मंदिर में, कभी मस्जिद में, कभी शिवालय मे। उषा जी का विश्वास है, हमे तो मिल जाते है सहज से। इसलिये तो वह आखें तरसती है, बहुत रोकती हूँ फिर भी बरसाती हैं। इस बरसने का मुजे ना गम है, ना कोई मलाल, क्योंकि बरसने से ही तो दिल को चैन मिलता है, अश्रुधारा नहीं है यह, यह आदर की यमुना है, आस्था की गंगा है ओँर श्रद्धा की सरस्वती है।

दिल्ल्ली मे प्रत्येक दिसम्बर - जनवरी में कडाके कि सर्दी पड़ती है। क़ए बार तो कइ - कई दीन तक सूर्यदेव के दर्शन नहीं होते, पर जिस दिन सुर्य किं स्वर्णिम किरणों में बैठने से जो सुखद अनुभूति होती है, एक लंबी सांस लेता है आदमी, अंगडाई भी लेता है, हाथों को रगड़ता है ओँर चहरे पर मालिश करता है। वह भीनी-भीनी धुप तब सुखद अनुभूति बंकर मन को पुलकित कर देतीं है। बस यही स्थिति होती है, उषा जी के मन की जब उन्हें महाराजश्री के प्रवचन सुनाने का सौभाग्य मिलता है। ये प्रवचन नही होते थे, यह तो जैसे सुगन्धित फूलों की चँवर बनाकर डुला रह है कोई, मन जीवन हो उठता है, मन हो जाय उजियारा, इसीलिये तो उन्होंने सोचा, उतार लो इन मोतियों को, पकड़ लो इन किरणों को और यह पुस्तक "जीवन की राहें" उन्होंने आपकी सेवा मे भेट की है, महकाये यह आप सबके जीवन को। यही प्रार्थना है भगवान से - नमन है उस भावना को, जो समर्पित है सदगुरुजी कें चरणों में।







Sunday, September 2, 2007

Satsang - Spiritual Revival - Geting Together

Satsang - Spiritual Revival - Geting Together

The Satsang is gathring of people seeking spiritual awakening.

  • Spiritual Asakening
  • Regular Discources on Spiritulity
  • Management of Desires
  • Revival of our Value System
  • Character Building
  • Motivation and Leadership
  • Cultivation of Peace & Harmony
  • Developmnet of Body and Mind and Soul

Visions of Param Pujya Shri Sudhanshuji Maharaj

Visions of Param Pujya Shri Sudhanshuji Maharaj

  • Inculcation of human values in our society
  • Moving forward from religion to spirituality
  • Removal of poverty
  • Scientific and clear perception
  • End of fundamentalism and false thinking practices
  • Full Faith in the presence of God
  • Respect of good and opposing the bad elements in our society.
  • Development of body, mind and soul
  • Peace and harmony in the word

Param Pujya Sudhanshu Ji Maharaj


Amrut Kalash - A pitcher fo Ambrosia

Amrut Kalash - A pitcher fo Ambrosia by Revered Shri Sudhanshu Ji Maharaj

The word of wisdom flowing from the spiritual depths and experience of his Holiness Sudhanshu Ji Maharaj are the blooms and bursts of colour and fragrance, vibrant as sparklers in festive display. These teach us to live life like the smiling spring.

सतगुरु सुधान्शुजी महाराज


पुस्तके : स्वर्ग की लहरे

पुस्तके : स्वर्ग की लहरे

समर्पण आकाश है, आकाश की सीमा नहीं होती । कोई तलाश कर उन सीमाओं की। कोई बाँध सकता है आकाश को? श्रध्दा और आस्था वे पुष्प हैं जिनकी सुगंध बहुत ही मदमाती है। मस्ती है उनमें, खुमारी है उनमे, समर्पण, श्रध्दा और आस्था की त्रिवेणी, बडी ही सुन्दर संगमधारा गंगा, यमुना, और सरस्वती की, पुण्य का धाम, एक तीर्थ, एक मुक्ति का द्वार। बात विश्वास की है, यही विश्वास संजोये बहन शंकुतला अग्रवाल जी आती है मेरे पास। कहती है - कुछ बात करनी है । महराजश्री के पवन आशीर्वाद से गद-गद, पुलकित कुछ कह नहीं पाती है, रोम-रोम में जैसे पुल्कन है, पिघल रह है जैसे सब कुछ, आँखों में सहसा पनि की बूंदे, हर्ष की, उल्लास की, वसंत की, मधुमास की, हास की, परिहास की, आशा और आस्था की, विनम्रता की, कुछ कह नहीं पायीं, पर मैं समझ गया - स्वर्ग की लहरे, मूल पुस्तक आत्मजागरण की वेला का दुसरा भाग, समर्पित करना चाहती हैं, सदगुरु चरणों में। उनके शब्द उनकी वाणी, अमृत जैसी मिश्री रस घोल देती है जीवन में, प्रकाशित करने का विचार, और फिर अवसर गुरुपुर्निमा का। गुर तो बरसते है कृपा लगातार, वर्षा करते है स्नेह कि, सद्ज्ञान की, लहरे बाटते हैं राम की, भगवान की, शिष्य क्या समर्पित करे? सोचा, जो मन के भाव है, अर्पित करो वही गुरुचरण में।


और यह पुस्तक 'स्वर्ग की लहरे', कागज के पत्ते नहीं हैं ये। यह वाणी है सदगुरु सुधान्शुजी महाराज के। यह सुगंध है बहन अग्रवाल के समर्पण की, उनकी आस्था के ज्योति है, श्रध्दा का मोती है, यह आपके जीवन मे अमृत रस घोल दे, यही कामना है हमारी! इस पुस्तक के प्रकाशन में और लगभग सभी पुस्तकों के प्रकाशन मे हमेशा योगदान रहता है एक ऐसे मोंन, शांत और समर्पित व्यक्तित्व का, जो नम नहीं चाहता, मौंन सेवा की मूर्ति, किन्तु मेरा मन मान नहीं रहा है। आशीर्वाद है मोनिका को, जिसका रोम-रोम मिशन की सेवा को समर्पित है। भगवान उसे सुख दे और महारजश्री का सान्निध्य उसे मिलता रहे और उसकी लगन की ज्योति बनी रहे !

'आत्मजागरण की वेला' मिशन की सबसे पहली पुस्तक थी, मुखपृष्ट पर महाराज्श्री का सुन्दर चित्र उसी समय का तलाशा है हमने।


- डाँ नरेन्द्र मदान

पुस्तके : गीता संदेश

पुस्तके : गीता संदेश

पांच हजार वर्ष पूर्व भारत कि पुण्यभूमि पर गीता का गान गूंजा। दिगदिगन्त गुंजायमान हुआ। विषाद से प्रसाद कि ओर, मृत्यु से अमृत कि ओर , कायरता से वीरता कि ओर, पलायन से पुरुषार्थ कि ओर, भगाने से जागने कि ओर अर्जुन को माध्यम बना भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता का संदेश दिया।

गीता, गंगा, गायत्री, गौ और गुरू इस पावन धरती कि संस्कृति कि अभिनव पहचान है। गीता संजीवनी है जो मुर्दा मन कें प्राण फूंकती है। विश्व्व में गंगा एक ही है तो सारे संसार में गीता भी एक ही है। गंगा तन पवित्र करती है, गीता जीवन को पवित्र कराती है।

पुस्तके : जीवन प्रभात - Jeevan Prabhat

पुस्तके : जीवन प्रभात

परम पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज के मुखारविंद से प्रवाहित ज्ञानकोष कि कड़ी में अलंकृत है यह सदग्रंथ "जीवन प्रभात" ।

जीवन प्रभात से प्रारम्भ होकर साँझ को समाप्त हो जाता है। प्रभात है बचपन और साँझ है बुढ़ापा। मनुष्य प्रभु कि कृपा से संसार मे जन्म लेता है। यहा के विषय वासनाओं मे लिप्त रहकर वह भूल जाता है कि मन्युष जीवन का परम उद्देश्य क्या है? इस जीवन के अमूल्य क्षणों को कैसे व्यतीत करना चाहिये? वह सारा जीवन अपनी उल्ज्हनो को सुल्ज़ाने में लगा रहता है। समय अपनी गति से बीतता रहता है। जीवन कि यात्रा में चलते - चलते उसके अंग शिथिल हो जाते है, शरीर जज्र्र हो जता है, बल श्वेत हो जाते है, मुख में दंत नही रहते, संसार धीरे धीरे दूर हो जाता है, संबंधों कि कड़ी टूटने लग जाती है, जीस संसार नो उसने सत्य माना था, वह कितना झूठा निकला, यही बोध करवाना इस ग्रंथ का उद्देश्य है।

जगदगुरु शंकराचार्य कि चेतावनी पर आधारित यह ग्रंथ श्रद्धालुजनों को इस अनुपम भेंट है इसका स्वाध्याय कराने से रोम रोम पुलकित हो उठता है; क्योंकि संसार के असत्य से जब पर्दा उठता है तो बोध होता है उस तत्त्व का, जो वास्तव में सत्य है, अनश्वर है, प्राणों का प्राण है, अविनाशी है, ज्योतियों कि ज्योंति है, जिसे प्राप्त करना, जिसमे समाहित हो जाना मानव जीवन का मुख्य उद्येश्य है।

पुज्यश्री सुधान्शुजी महाराज के प्रवचनों पर आधारित इस ग्रंथ कि भाषा सरल किन्तु सारगर्भित, विचारों में नदी-सा प्रवाह है, निरन्तरता और तारतम्य है, जो "जीवन प्रभात" सचमुच में जीवन कि प्रांतः को शुभ प्रभात बना देता है।