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Monday, September 3, 2007

पुस्तके : जीवन की राहे

पुस्तके : जीवन की राहें

उषाजी कोई लेखिका नही हैं। वह कहती है - मैं तो पुजारीन हूँ । अपने इष्टदेव की। तेरा जलवा है जहाँ, मेरा सजदा वहां होगा। मेरे जैसे तो लाखों है, तेरे जैसा कहॉ होगा? यहा सब कुछ मेरे बस का नहीं है । मन हमेशा लालायित रहता है सदगुरु सुधांशु जी महाराज के दर्शनों के लिए, न हो तो ऐसे लगता है जैसे कुछ पाना था, मुजे कुछ मिलना था, दर्शन नही हुए, तो वह मिला भी नहीं जो मुझे मिलना था। मिलता था उन्हें सकुन, शांति, संतोष, आनंद, बस उसी की तलाश में तो है हर इंसान। ढूंढ़ रहा है कभी मंदिर में, कभी मस्जिद में, कभी शिवालय मे। उषा जी का विश्वास है, हमे तो मिल जाते है सहज से। इसलिये तो वह आखें तरसती है, बहुत रोकती हूँ फिर भी बरसाती हैं। इस बरसने का मुजे ना गम है, ना कोई मलाल, क्योंकि बरसने से ही तो दिल को चैन मिलता है, अश्रुधारा नहीं है यह, यह आदर की यमुना है, आस्था की गंगा है ओँर श्रद्धा की सरस्वती है।

दिल्ल्ली मे प्रत्येक दिसम्बर - जनवरी में कडाके कि सर्दी पड़ती है। क़ए बार तो कइ - कई दीन तक सूर्यदेव के दर्शन नहीं होते, पर जिस दिन सुर्य किं स्वर्णिम किरणों में बैठने से जो सुखद अनुभूति होती है, एक लंबी सांस लेता है आदमी, अंगडाई भी लेता है, हाथों को रगड़ता है ओँर चहरे पर मालिश करता है। वह भीनी-भीनी धुप तब सुखद अनुभूति बंकर मन को पुलकित कर देतीं है। बस यही स्थिति होती है, उषा जी के मन की जब उन्हें महाराजश्री के प्रवचन सुनाने का सौभाग्य मिलता है। ये प्रवचन नही होते थे, यह तो जैसे सुगन्धित फूलों की चँवर बनाकर डुला रह है कोई, मन जीवन हो उठता है, मन हो जाय उजियारा, इसीलिये तो उन्होंने सोचा, उतार लो इन मोतियों को, पकड़ लो इन किरणों को और यह पुस्तक "जीवन की राहें" उन्होंने आपकी सेवा मे भेट की है, महकाये यह आप सबके जीवन को। यही प्रार्थना है भगवान से - नमन है उस भावना को, जो समर्पित है सदगुरुजी कें चरणों में।







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