ॐ गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु: गुरूर्देवो महेश्वरा: !
गुरू: साक्षात परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:
गुरूवर के चरणों में कोटी -कोटी प्रणाम
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संसार मे जितना भी ज्ञान -विज्ञानं है वह गुरुमुख से प्राप्त होने पर ही फलता है। ज्ञान ही गुरू है और गुरू ही ज्ञान है। ब्रह्मज्ञानी गुरुओं के मुखारविंद से ज्ञान के अजस्त्र धारा पूर्वकाल से ही प्रविहित होती आ रही है। क्योंकि ज्ञान का आदि स्त्रोत हो स्वयं परमब्रह्म परमेश्वर है। प्रभु की अनंत कृपाओं से ओत-प्रेत होकर गुरू रूप मे ज्ञान रश्मियां निरंतर प्रस्फुटित होती है और तब अज्ञानता के नमस् का तिरोभाव सम्भव होता है।
अग्यांरुपी अँधेरे का वजूद तब तक ही है जबतक सद्ज्ञान का सवेरा न हो। जैसे हरी-हरी घास पर अथवा वृक्ष के पत्तों पर पडी ओस की बूंदें सुर्य की किरणों आते ही वाष्पिभुत हो जति हैं, विलीन हो जीती हैं। पुनः कोगाने पर भी उन्हें नहीं पाया जा सकता। ऐसे ही जब गुर के ज्ञानरुपी सुर्य की किरणें शिस्य्या के अंतःकरण पर पड़ती हैं तो विकार, वसन, और अज्ञान का अँधेरा स्वयं भाग जता है। उसे मिटाने के लिए संघर्ष की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि अज्ञानरुपी अन्धकार और सद्ग्यान्रुपी प्रक्साह इनका सहस्तिव्त्व असम्भाव है।
अतः आइए! गुर ज्ञान की अम्रुत्वनी से हम भी अपने जीवन के पथ को आलोकित करने का सफल प्रयास कर्ण और मस्तिषक को गुरुचरण मे नवाकर सद्ज्ञान रूपी आशीष प्राप्त करे।
जीवन संचेतना जुलाई २००७।
पुस्ताके : आलोक पथ
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ज्ञान का दीपक जल गया तो कष्ट-क्लेश अपने आप दूर हो जायेगा, अँधेरा भाग जायेगा। अँधेरे सं लढाई मत मोल लो, केवल दीपक जलाओ।
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जो झानी है वह अन्दर-बहार से सरल होगा। दोनों ओर से सरलता टपकेगी, कही भी कपट नही, कुटिलता नही। सीधी-सीधी भाषा और बच्चो जैसा निश्छल मन।
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प्रकृति मे तीन गुण है - सत, रज और तम। जिस गुण की मात्रा शरीर और मन-मस्तिष्क में बढती है उसी के अनुसार व्यक्ति का व्यवहार दिखाई देने लगता है।
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आपके स्वभाव में कुछ इस तरह कि ताजगी होनी चाहिये जैसे किसी पहाड़ी स्थान पर सुबह-सुबह खिले हुये फूलों पर पडी हुई ओस।
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आपकी वाणी सत्य से प्रतिष्टित हो, प्रिय हो और हितकर हो। अपनी वाणी को ज्ञान के मधुर शब्दो से सजाओ।
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मृत्यु इस जन्म कि आख़िरी नींद है। जन्म अगले जीवन का पहला जागरण है। पड़ाव पर थक कर सो जाना-बस, इसी का नाम मौत है। जागा तो नयी ताजगी से भर कर आगे चल दिया।
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Param Pujya Sudhanshu Ji Maharaj